आरा शहर के जेल रोड में स्थित जैन सिद्धांत भवन, जिसे ओरिएंटल लाइब्रेरी के नाम से भी जाना जाता है। 1903 में स्थापित इस भवन सह पुस्तकालय में 12वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी तक कि 10,000 से भी ज्यादा पांडुलिपियों को संग्रहित कर सुरक्षित और संरक्षित किया गया है। यह उत्तर भारत में जैनिज्म व प्राच्य विद्या का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्रों में से एक है। लगभग चार दशक पूर्व इसे मगध विश्वविद्यालय, बोध गया से डीके जैन ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीच्यूट के नाम से जोड़ दिया गया था। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा की स्थापना के बाद यह संस्थान इससे जुड़ गया।
भारत प्राचीन काल से लेकर आज तक ऐतिहासिक धरोहरों का अनूठा केंद्र रहा है| खासकर बिहार ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है| इतिहास को संवारने में बिहार के भोजपुर जिले की भी बड़ी भूमिका रही है क्योंकि इस जिले ने भी कई ऐसे प्राचीन वस्तुओं को अपने आप में समाहित किया है, जो बहुत महत्वपूर्ण हैं| शहर के बीचों-बीच स्थिति 107 साल पुराने विशाल जैन सिद्धांत भवन में एक जैन ओरिएंटल लाइब्रेरी है, जो अपनी सुंदरता के लिए एक अलग पहचान रखती है| इस लाइब्रेरी का महत्व न इसके सुन्दर और प्रशांत स्थापत्य में है, न धार्मिक परिवेश में और न व्यवस्थित ग्रंथालय के रूप में ही है, अपितु यह वह सांस्कृतिक विरासत है जिसके अंतर्गत संग्रहालय और शोध संस्थान समानांतर रूप से काम करते हैं| देश विदेश से कई विद्वान शोध के लिए यहां आ चुके हैं और निरंतर आते रहते हैं| हस्तलिखित पुरातन बहुमूल्य जैन ग्रन्थ का ऐसा मूल्यवान संग्रह उत्तर भारत में शायद ही दूसरे जगह हो| इस ऐतिहासिक लाइब्रेरी में संस्कृत, पाली, अंग्रेजी, गुजरती, मराठी, कन्नड़, तमिल, तेलगु आदि भाषाओं में प्रकाशित और हस्तलिखित किताबों का संग्रह है| लाइब्रेरी में मुद्रित ग्रन्थ जहां 25000 हैं, वहीं हस्तलिखित 8000 ग्रन्थ हैं| लाइब्रेरी में 107 साल पहले वर्ष 1903 में स्व. बाबू देवकुमार जैन रईस और अन्य लोगों हस्तलिखित किताबों और चित्रों का भी संग्रह है| वहीं लाइब्रेरी में सचित्र जैन रामायण, सचित्र भक्तामर समेत कई बहुमूल्य चित्र जुटाकर रखे गए हैं|
भारत की आजादी के लगभग 3 दशक बाद इस लाइब्रेरी को मगध विश्वविद्यालय से डीके जैन ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीच्यूट के नाम से जोड़ दिया गया था| मगह यूनिवर्सिटी से टूटकर जब एक नई यूनिवर्सिटी वीर कुंवर सिंह यूनिवर्सिटी बनी तो इस पुस्तकालय को इसी नए यूनिवर्सिटी के साथ जोड़ दिया गया| स्थापना के लगभग 107 साल बाद भी इसमें हजारों पुस्तकें, दुर्लभ पांडुलिपियां, ताड़पत्रीय ग्रंथ, प्राचीन सिक्के, दुर्लभ पेंटिंग आदि उपलब्ध हैं| स्व. जैन ने दक्षिण भारत में एक दिन किसी व्यक्ति को प्राचीन दुर्लभ ग्रंथों को बेचते हुए देखा था| उसी समय उनके मन में दुर्लभ ग्रथों के प्रति मोह जगा और उन्होंने उन दुर्लभ ग्रथों को खरीद लिया| उसके बाद से दुर्लभ ग्रंथों को संग्रह करने का सिलसिला शुरू हुआ| आज यहां पुस्तकों का बड़ा संग्रह है| पांडुलिपियों को बचाने या इसके संरक्षण के लिए जब कोई व्यवस्था नहीं थी, तब देवकुमार बाबू ने 20वीं शताब्दी के शुरुआत में ही इस पुस्तकालय की नींव रखी| उस वक्त देवकुमारजी ने देखा था कि साउथ इंडिया में किलो के भाव में पाण्डुलिपियां बिक रही हैं और अंग्रेज उसे खरीद कर ले जा रहे हैं| तब जाकर उन्होंने जैसे-तैसे व्यवस्था कर इस लिब्ररेरी को खड़ा किया| ऐतिहासिक आरा शहर के बीचो-बीच स्थित इस लाइब्रेरी में तकरीबन 10 हजार हस्तलिखित पाण्डुलिपियां हैं और 25 हजार बहुमूल्य किताबें हैं| इसके अतिरिक्त कई पेंटिंग भी उपलब्ध हैं|
महत्वपूर्ण किताबों के अलावा जैन सिद्धांत संग्रहालय में सुबोध कुमार जैन की कलाकृतियां और साथ ही विभिन्न शासकों के शासन काल के सिक्के हैं| इस लाइब्रेरी से डॉक्टर विंटवीच हर्मन, जेकाबी, प्रोफेसर डब्लू, नारमैन, ब्राउन, पंडित आचार्य चारुकृति के अलावा अनेक देसी-विदेशी विद्वानों का शोध है, जिससे कई शोधार्थी अब तक लाभान्वित हुए हैं| आर्थिक संकट के कारण जैन सिद्धांत भास्कर और जैना एंटीकेयरी का प्रकाशन 1999 से बंद है|
इस लाइब्रेरी में देश-विदेश के कई चर्चित व्यक्तियों को आगमन हुआ| इन लोगों ने इस लाइब्रेरी की काफी प्रशंसा की| प्रमुख व्यक्तियों में प्रसिद्ध विद्वान डॉ. हरमन जैकेबो, सर आशुतोष मुखर्जी, अवनीन्द्र नाथ टैगोर, रवीन्द्र नाथ टैगोर, महात्मा गांधी, पं. मदन मोहन मालवीय, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. श्रीकृष्ण सिंह, डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह, बाबू शिवपूजन सहाय, आर. आर. दिवाकर, रामधारी सिंह "दिनकर', डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा, विनोबा भावे, सर मिर्जा इस्माइल, डॉ. अमरनाथ झा, आचार्य बदरीनाथ वर्मा, मुनि कांति सागर वर्मा, सुचेता कृपलानी जैसे बड़े नाम शामिल हैं| सरकारी उदासीनता के शिकार इस लाइब्रेरी के लिए वो वक्त स्वर्णिम काल था, जब ये बड़ी हस्तियां यहां आया करती थी किन्तु वर्तमान में किसी भी तरह की सरकारी आर्थिक सहायता नहीं मिलने से काफी परेशानी हो रही है| यहाँ पुस्तकों के रख-रखाव में दिक्कतें आ रही हैं और लाइब्रेरी का विकास नहीं हो रहा है| शोध कार्य और कैटलॉग को कम्प्यूटरीकृत किया जाना चाहिए क्योंकि कागज पीले हो गए हैं| अब, दुर्लभ पांडुलिपियों, भवन विस्तार और शोधकर्ताओं के लिए बैठने की उचित व्यवस्था बनाए रखने के लिए हमें राज्य सरकार से उचित समर्थन और पैसे की आवश्यकता है| आपको एक और महत्वपूर्ण बात बता दें कि ये भवन तक़रीबन 100 सालों से साहित्य और साहित्य महारथियों के दान से चला रहा है| अर्थाभाव के कारण आज इसका अस्तित्व खतरें में है।
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