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और कितना पतित करेंगे पत्रकारिता को?


एंकरों के 'भौंकने' और रिपोर्टरों के 'रेंकने 'का दौर

●निरंजन परिहार 

हमारे हिंदुस्तान में न्यूज़ टेलीविजन आज पत्रकारिता नहीं, सिर्फ तमाशा है या मदारी का खेल है। क्‍योंकि खबर आज यह नहीं है कि दिल्‍ली से दूर देश के दिल में कहीं क्‍या कुछ खास हो रहा है। बल्कि खबर यह है कि रिया घर से कब निकलने वाली है और शौविक कहां सोता है। खबर यह है कि तीन महीने पहले मरे हुए एक अभागे सुशांत को तीन साल पहले खाना कौन खिलाता था और उस खाने में क्या-क्या मिलाता था। यह सब इसलिए नहीं है कि आज चैनलों के पास कोई और खबर नहीं है। दरअसल, खबर इसलिए नहीं है क्योंकि खबर की जरूरत को चैनलों ने महसूस करना छोड़ दिया है। यहां सिर्फ होड़ है, आगे निकलने की। दरअसल, संवाद संवेदना से जन्म लेता है और संवेदना सरोकार की संवाहक है। लेकिन जब संवाद, संवेदना और सरोकार सारे ही समान रूप से धंधे की धमक में धराशायी हो जाएं तो जो पतित परिदृश्य पैदा होता है, वही आज हम सब देख रहे हैं। 

मीडिया विश्‍लेषकों और मीडिया में अब भी आस्‍था रखने वाले हमारे मित्रों से अनुनय विनय है कि कृपया पत्रकारीय नैतिकता को परंपरागत नज़रिए से देखने के बजाय ताक पर रखकर सुशांत सिंह की मौत के मातम को मजाक बनता देखते रहिए। क्योंकि मीडिया अब मिशन नहीं, कमीशन हैं। खबर अब सूचना और जानकारी नहीं, एक धमकता हुआ धंधा है। इसलिए, प्रिंट हो या टीवी, मीडिया में अब हर खबर वहां केवल नफे और नुकसान की अवधारणा का आंकलन है। बाजारवाद ने मीडिया को धंधे में ढाल दिया है। ऐसा ही होता है, सेवा का कोई स्वरूप या मिशन, जब धंधे का रूप धर ले, तो सरोकारों की मौत बहुत स्वाभाविक है। इसीलिए, आज टीवी चैनलों की, चैनलों के एंकरों और एंकरों से बात कर रहे रिपोर्टरों की हालत क्‍या है? दिल पर हाथ रखकर पूछिए, कि क्‍या उन्‍हें सूचना व संवाद का माध्यम कहा जा सकता है? 

हम में से बहुत सारे साथी खबरों की दुनिया के पुराने बादशाह हैं – और उन्होंने संस्कार, सरोकार व संवाद की पत्रकारिता की है। कोई प्रिंट में तो कोई टीवी में, और कोई अपनी तरह दोनों में काम का अनुभवी है। सो, हम सबके लिए सोचने, समझने और दिमाग लगाने के बजाय इस पूरे परिदृश्‍य से गायब हो जाने का वक्त है। चुप्पी साधकर इस दौर के गुजरने का इंतज़ार करने का वक्त है। हम, जो दो – ढाई दशक से ज्यादा वक्त पुराने पत्रकार हैं, हम सबके अतीत और वर्तमान के बीच बाजारीकरण की एक दीवार खड़ी हो गई है। सन 2000 के पहले की और उसके बाद की पत्रकारिता में जो खाई कुछ ज्यादा ही गहरा गई है, उसकी गहराई को सिर्फ सिर्फ एंकरों के ‘भौंकने’, रिपोर्टरों के ‘रैंकने’ और खबरों को खत्म हो जाने नज़रिये से देखिए। पत्रकारिता के पतित होते इस परिदृश्य में, पवित्र और पावन पत्रकारिता तलाशेंगे, तो तकलीफ ही मिलेगी। और कुछ नहीं मिलनेवाला। फिर भी मिले, तो बताना ! 

(प्राइम टाइम)

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