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 14 सितंबर हिंदी दिवस पर विशेष लेख

                                      

क्या उखाड़ लेंगे के शोर में उखड़ती हिंदी..!


रमेश तोरावत जैन: अकोला 


बरसो पहले एक पहेली सुनी थी कि वह क्या है, जो कि स्थान बदलते ही उसका नाम बदल जाता है? आपको मैं अधिक इंतजार न करवाते हुए जल्दी से बता देता हूं कि वह है बाल| हाँ बाल! सिर में हो तो बाल.. थोड़ा नीचे आंखों पर तो यही बाल भवे कहलायेंगे.. थोड़ा नीचे ये पलके बन जाती है और थोड़ी जगह बदले और नीचे आये तो इन्हें हम मूछें कहेंगे और नीचे आये तो यह दाढ़ी कहलाते है| नारी के सिर पर हो तो चोटी कहते है, जुड़ा कहते है| प्रेयसी के सिर पर है तो जुल्फें है और साधु के सिर पर है तो जटा है.. जटा.. जटाधारी.. तो बाल तो वही है मगर इन्होंने स्थान बदला तो इनके नाम भी बदल गए| बड़ी ही प्यारी पहेली, बड़ा ही प्यारा जवाब| मै कब उस समय जानता था कि भविष्य में यह पहेली मेरे किसी लेख की भूमिका बनेंगी.. मै कब जानता था कि यह बाल एक दिन मेरे लिए अदभुत विचारों को लाएंगे, जिस पर मेरी कलम चलेंगी.. मै लिखूंगा और दुनिया बड़े ही चाव से इसे पढेंगी|


मगर लेख का विषय तो बाल कदापि नही है| विषय है, आज के इस समय मे अखबारों की सुर्खियां और सुर्खियों में है एक वाक्य.. उखाड़ लेंगे.. उखाड़ लिया| मतलब की मीडिया में उखाड़ने की चर्चा जोरों से शुरु है| फ़िल्म अभिनेत्री कंगना कहती है कि देखती हूं कि कौन मेरा क्या उखाड़ लेगा? फिर कोई अखबार कहता है उखाड़ लिया| मेरी सारी कवायद उखाड़ने को लेकर है| अभी तक मेरी समझ थी कि यह वाक्य ओछी मानसिकता का परिचायक है और चार भले लोगो मे इसके प्रयोग से बचना चाहिए| चार लोगों में ही क्यो..? यह तो कभी भी प्रयोग में नही लाना चाहिए| मगर अभी यह चल रहा है.. चल क्या रहा है, यह तो दौड़ रहा है| चारो तरफ इसका ही बोलबाला है| यह आम हो गया है.. यह सहज रूप में स्वीकार हो रहा है.. यह भीड़ में बोला जा रहा है.. यह परिवार में चर्चा का विषय है|

मै देखता हूं कि यह अधूरा वाक्य है| इस वाक्य में कुछ और जोड़ना बाकी है| वही कुछ और जो कि असभ्य लोग बिना कोई परवाह किये जोर-जोर से यह वाक्य बोल देते है.. यह अच्छी मंशा को प्रकट नहीं करता| इस वाक्य को लेकर मेरे मन मे जरा भी शंका नही थी कि यह बेहद ही बेहूदा ओर घटिया है| मगर जब इसे सभ्य समाज की बस्ती में चलन में देखा तो मेरा माथा ठनका| मैने मेरे एक परिचित कविश्री से इस बारे में उनका मंतव्य जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि मै सही हूँ और यह वाक्य तभी प्रयोग में लाया जाता है, जब कोई सामने वाले से इतना बेफिक्र है कि वह उसका कुछ नही कर सकता| बकौल कंगना कि कौन मेरा क्या उखाड़ लेगा..! वही सुपर-डुपर हिट फिल्म मैने प्यार किया, हम आपके है कौन जैसी कई फिल्मो के लेखक फ़िल्म इंड्रस्टी के प्रसिद्ध लेखक श्री ऐस. एम. आहले ने मुझे बताया कि उखाड़ना शब्द तो हिंदी में है, मगर जो अभी चल रहा है उस अंदाज में नही| श्री आहलेजी के अनुसार तू मेरा क्या टेड़ा कर लेगा इसी का विभत्स रूप तू मेरा क्या उखाड़ लेगा है| वहीं देश के प्रख्यात साहित्यकार श्री रामप्रकाशजी वर्मा कहते है कि खूंटी गाड़ना और खूंटी उखाड़ना इसका प्रयोग हिंदी साहित्य में हुआ है और मगर वर्तमान के उखाड़ने को लेकर कलमकारों ने बड़ी ही सावधानी बरती है और इससे दूरी बनाकर भाषा को दूषित होने से बचाया है| फ़िल्म इंडस्ट्री के एक चर्चित प्रोडक्शन हाउस के प्रमुख और कई बड़े सितारों के भाग्य को चमकाने वाले एक फ़िल्म निर्माता ने नाम नही छापने की शर्त पर कहा कि यह हिंदी भाषा में कहीं भी प्रयुक्त नही हुआ है और सभी लोगो को इसके प्रयोग से बचना चाहिए| आगे वे कहते है कि युवा पीढ़ी ऐसे वचनों का धड़ल्ले से उपयोग कर रही है, जो कि उचित नही| शीर्ष हिंदी अखबार दैनिक भास्कर समूह सम्पादक श्री प्रकाशजी दुबे कहते है कि शब्द प्रयोग हर व्यक्ति की अपनी पसंद है| यह सोचना व्यक्ति का काम है कि वह किस या किन शब्दों का प्रयोग कहाँ करे और कहाँ न करे| मगर वे आग्रह करते है कि व्यक्ति को सार्वजनिक जीवन मे वही भाषा उपयोग में लानी चाहिए जो कि वह अपने घर-परिवार में बोलता है| मतलब कि वे इशारा करते है कि भले ही बोलने की सबको स्वतंत्रता है, मगर संस्कारो से दामन नही छुड़ाना चाहिए| तीन हजार से भी अधिक टीवी धारावाहिको के लिए लिखने वाले साहित्यकार श्री सुभाषजी काबरा ने मुझे बताया कि शब्द तो ब्रह्म होते है| उनका चयन सोच-समझ कर होना चाहिये| शब्द जख्म देते भी है और जख्मो को मरहम भी लगाते है| जहाँ किसी भी देश की भाषा उसकी संस्कृति की प्रतीक होती है, वहीँ हमारे व्यक्तित्व की पहचान भाषा से होती है|

उखाड़ लो की ललकार और उखाड़ लेने की कामयाब कोशिश ने इस अभद्र वाक्य को भद्रजनों की शैली में शामिल होने का अवसर दिया है| अब तक दबी-छुपी आवाज में अपने अस्तित्व को बरकरार रखने वाला उखाड़ पंच अब मुखर हो गया है| अब इसे बोलने में शर्मिंदगी महसूस नहीं होती| इतनी तो लोगो ने शराफत रखी है कि सार्वजनिक बयानबाजी में इसके आगे के शब्द जो कि बालों (जैसे कि ऊपर बताया गया है कि स्थान बदलते ही बालों के नाम परिवर्तित हो जाते है) के आशय के है को नही जोड़ा.. जैन संत स्वयं अपने हाथों से अपने सिर, दाढ़ी और मूंछ के बाल उखाड़ते है, मगर वहां भी जैन दर्शन ने गरिमा रखी है और इस क्रिया को केशलोचन का नाम दिया है| लड़कपन की नादानी की उम्र में एक बार मैने भी यह वाक्य अपनी पूरी बुराई के साथ एक मित्र को कहा था| खेलकूद कर घर लौटते समय मेरा एक मित्र मिला और बोला कि चलो खेलने जाते है| उसके जवाब मै मैने उसे बड़ी ही ऊंची आवाज में कहा " अब क्या...... उखाड़ने आया है..? हम तो खेलकर आ गए है| मेरी आवाज इतनी ऊंची थी कि कई लोगो की गर्दन स्वत ही मेरी तरफ मुड़ गयी| एक तो बोल भी पड़ा " बाबू बिल्कूल सही जा रहा है, खूब नाम रोशन करेगा| आम जुबां में प्रचलित भाषा के दूषित स्वभाव को मै तब समझ नही पाया था और जो मुझ पर कटाक्ष कर रहा था, जी कर रहा था उसे भी चार बात सुना दूँ| सचमुच हम अपने संगी साथियों में इतना गाफिल हो जाते हैं कि वो सब कुछ अपना लेते है, जो सही नही होता है| मगर हमे वह कभी गलत नही लगता| जो उसे गलत सिद्ध करने की कोशिस करता है, वह हमारी नजर में बुद्धिहीन होता है| बचपन मे ऐसे ही मैने मामाजी से बड़ी ही असभ्यता से पूछा था कि मेरा बाप कहाँ है? बाबूजी को बाप बोलने का दोषी मै तो था ही मगर साथ मेरे वे नन्हे साथी भी थे जो कि गरीब झुग्गी झोपड़ियों में रहते थे| सोहबत ने मेरी भाषा को उद्दंड बनाया था| मामाजी की कहर भरी आंखे मेरा आज भी पीछा करती है, तब जबकि शब्दो के चयन का सलीका मै सिख चुका हूं|

बरहाल हमारा चिंतन उखाड़ने को लेकर है| यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या उखाड़ सकते है? तो जवाब होना चाहिए कि जो गड़ा हुआ हो.. धंसा हुआ हो, वही उखाड़ा जा सकता है| मेज पर रखी पेटी को कोई उखाड़ नही सकता बल्कि उठा जरूर सकता है | वहीं पौधे को उखाड़ना ही पड़ता है क्योंकि वह बहुत गहरे तक है| कोई अपने वजूद को लेकर इतना आश्वस्त है कि जानता है कि कोई उसकी जड़े नही हिला सकता तो वह ललकारता है कि आओ! जो उखाड़ना है, उखाड़ लो| तो कोई इतना बलवान है कि किसी की भी नींव हिला देता है, बकौल चलन में उखाड़ लेता है| मुगलों के आक्रमक रवैये से अनजान कई रजवाड़ों को भ्रम था कि मुगल क्या उखाड़ लेंगे? अंग्रेजो को भी बड़ा गुमान था कि काले भारतीय उनका क्या उखाड़ लेंगे? मगर गांधीजी, आझाद सहित कई वीरों ने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंका| समय के साथ-साथ भाषा भी समृद्ध होती है| आज की हिंदी उर्दू, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती को अपने मे समाहित किये हुए है| काल के प्रवाह में भाषा अपना माधुर्य बदलती है| अवांछित शब्द भी उज्ज्वल हो जाते है| भले ही उखाड़ने को लेकर हमारी आपत्तियां हो, मगर यह तय है कि यह मुकाम बना चुका है| बिल्कुल वैसे ही जैसे कभी गुंडा रक्षक जैसे सम्मान का शब्द था और आज अत्याचारी का| कभी ये वाक्य भी गूंजे होंगे कि ये हमारे बहुत ही महान और आदरणीय गुंडे है जबकि आज किसी महान व्यक्ति को गुंडे का सम्बोधन नही दे सकते| कल का रक्षक गुंडा आज का अत्याचारी बदमाश कहलाता है| उखाड़ने की योजनाएं हर पल बनती रहती है| चीन हमे सभी मोर्चे पर उखाड़ना चाहता है और हमने चीन के ऐप बंद कर और चीनी वस्तुओं का बहिष्कार कर उसके व्यपार को उखाड़ फेंका है|



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