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#मेरा_गांव_दादाई (रानी)
गांव की गलियों से मेहमान बनकर मिलोगे तो रिश्तों के गलियारों में अजनबी ही रहोगे।
आज पूरी दुनिया आधुनिक युग की तरफ तेजी से अग्रसर हो रही है। लेकिन इस शहरीकरण के जमाने में जब बात सुकून और खुशहाली की हो तो अपने गाँव की याद आ ही जाती है। यहां सुविधाएं थोड़ी कम जरुर है  पर सम्मान, संस्कार, समर्पण और सहृदयता भरपूर है। हालांकि बचपन के वे रास्ते अब बूढ़े हो चले हैं। घर के पीछे वाला पेड़ भी बूढा हो गया है। बूढ़े हो गए हैं, वो सभी किसान काका, जो इन सर्दियों में अपने खेत से गेंहू की बालियां, नींबू और हरे चने खाने के लिए देते थे और बूढ़ी सी लगने लगी हैं, वो आस-पड़ोस की काकी, जो बाजरी का खींच खिलाने के बाद खींचिए धूप में सुखवाने और उनका ध्यान रखने की जिम्मेदारी देती थी। अगर भूतकाल का सोचूं तो सब बूढ़ा हो गया सा लगता है लेकिन यादें अब भी नवयौवना की भांति चंचल और चलायमान है।

                यदि देखने वाले की नजरों में खूबसूरती हो तो गाँव भी बड़ा ही खूबसूरत लगता है।  सुकून, खुशियाँ, स्वच्छ हवा, शुद्ध भोजन, रिश्तों की मिठास, अनजान लोगों के साथ भी अनकहे अपनेपन का एहसास, किसी बात को लेकर बुजुर्गों की नाराजगी (आज के जमाने का पहनावा आदि), सभी के सुख-दुख में शामिल होना और सबसे महत्वपूर्ण 'स्वयं के लिए समय'....। यह कोई किताबी दुनिया नही है। यह असल जिंदगी में अपने गाँव में मिलता हैं। बस! शर्त यही है कि हमें भी गांव से मिलना पड़ेगा। गांव की गलियों से मेहमान बनकर मिलोगे तो रिश्तों के गलियारों में अजनबी ही रहोगे।  
               गांव में आज भी बुजुर्ग चौराहे, मंदिर या वहां के अपने मनपसंद स्थान पर और महिलायें पनघट या खेतों में एकत्र होकर अपने-अपने अनुभव को एक दूसरे के साथ बांटते हैं। इन बातों के बंटवारों में अगर दुख हो तो आधा हो जाता है और सुख हो तो दुगुना। इन्ही बातों के बंटवारों में कुछ नए रिश्ते भी जुड़ जाते हैं। आपने और हमने गांव को बेहद करीब से देखा है, यूँ कहे कि सांसों के साथ जीया है। जिंदगी के हर छोटे-बड़े पड़ाव में  गांव को धन्यवाद किया है। अब यह भी हमारी ही जिम्मेदारी है कि जिस प्रकार हम अपनी जमीन व आर्थिक विरासत को अपनी अगली पीढ़ी को सौंपना अपना कर्तव्य समझते हैं, उसी प्रकार गांव की विरासत को भी अगली पीढ़ी को सौगात के रूप में सुपुर्द करने का प्रयास करें।

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