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चारों ओर गूंजी हिंगलाज माता की जय-जयकार 
दादाई/ गोडवाड ज्योति: हर वर्ष की भांति इस बार भी दादाई में होली पश्चात आयोजित जोगमाया माँ हिंगलाज माता का मेला बहुत ही धूमधाम से संपन्न हुआ| होली के रंगो के बाद गाँव में लोक-संस्कृति के कई रंग देखने को मिले| मेले-ठेले और उत्सव-पर्व में राजस्थान कई मायनों में देश के अन्य इलाकों से कुछ अलग व अनूठा है| बात चाहे भूगोल या इतिहास की हो, चाहे शक्ति और भक्ति की हो अथवा फिर कला या संस्कृति की हो, लोकरंगों की जितनी विविधता राजस्थान के गाँव में देखने को मिलती है, शायद ही कहीं और मिले। स्थानीय लोगों के साथ वहाँ पधारें सभी भक्तों ने माँ हिंगलाज के दर्शन व प्रसाद का लाभ लिया| मेले में स्थानीय ग्रामीणों के अलावा आस-पास के गाँव के लोगों ने भी हिस्सा लिया| मुंबई से भी कई जैन परिवार इस मेले में शामिल होने के लिए विशेष रूप से पधारें थे| पुरे दिन चारों ओर चहल-पहल से गाँव की रौनक अद्वितीय लग रही थी| रात्रि में लोक-कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम व भजन संध्या का आयोजन किया गया| मेले में लगे हाट-बाजार से पुरे गाँव का दृश्य बदल दिया था| स्थानीय ग्रामीणों के अतिरिक्त मेलार्थियों ने वहाँ सजे बाजार से खरीदारी की| पुरे दिन मेले में युवाओं व ग्रामीणों ने झूलों व वहाँ सजे व्यंजनों का जमकर लुफ्त उठाया| इस अवसर पर खास तौर पर राजस्थान का गेर-नृत्य का आयोजन किया जाता है, जिसमें आस-पास के गाँवो की कई टीम अपना नृत्य प्रस्तुत करती है| ये लोकनृत्य मनोरंजन करने वाली कोरी कलाबाज़ी नही हैं बल्कि इतिहास, संस्कृति, कला, दर्शन और कुल मिलाकर जीवनधर्मिता के वाहक हैं। मेले के खास मौके पर लोक-कलाकारों के दल द्वारा प्रस्तुतियों ने धूम मचा दी| लोक-नृत्य दलों की दर्शकों ने करतल ध्वनि से सराहना की और स्थानीय लोगों के साथ आगंतुकों ने भी इस रोमांचित करने वाले नृत्य का भरपूर आनंद उठाया और सभी दलों का उत्साह बढ़ाया| मेले के दिवस सुबह के भोजन की सुघड़ व्यवस्था का आयोजन किया गया था| इस मौके पर आमजनों समेत कई प्रतिष्ठीत गणमान्य व स्थानीय अधिकारी आदि बड़ी संख्या में शामिल हुए|

गेर: आदिवासी क्षेत्रों में होली के अवसर पर लगभग पूरे मास गेर नृत्य का चलन बड़े उल्लासमय और स्फूर्तिदायक रुप में होता है। सामूहिक रुप में विशेषकर पुरुष लकड़ियों के डंके के साथ नाचते हैं, जिसमें प्रत्येक अंग का भाग तोड़ और मरोड़ के साथ ताल से नाचता है और बीच में ढोल का ठमका बजाता रहता है। लगभग आधी रात तक यह क्रम चलता है, कभी-कभी स्त्री-पुरुष के जोड़े एक कतार में दो दलों के रुप में पास आते हैं और पीछे हटते हैं। इस नृत्य में भीली संस्कृति की प्रधानता रही है। इसके साथ जो संगीत की लड़ियाँ गाई जाती हैं, वे किसी वीरोचित गाथा का प्रेमात्यान के खण्ड होते हैं। खुशहाली की द्योतक लयों को गाकर नृत्य के साथ जोड़ा जाता है। वर्तमान में इस नृत्य की लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी कि भीलों के अतिरिक्त अन्य जातियाँ भी इस अवसर पर "गेर" बनाकर नाचते रहते हैं और इसके साथ गाते भी हैं। कृषक समाज में भी इसका प्रचलन है, जो फसल काटने के पश्चात् और फसल बोकर गेर करते हैं|

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