पक्षी कहते हैं चमन बदल गया, आकाश कहता है चाँद बदल गया।
कह रहा आज हम सभी का दिल, 'नैन' नही तो देखने का अन्दाज़ बदल गया|।
जीवन जीना एक कला है, जिसमे विरले ही अपनी प्रतिभा के साथ न्याय कर पाते है। 'खुशदिल व नैन' उपनाम से लिखने वाले लेखक, जैन गीतकार, जैन चालीसा रचनाकार, प्रधानाध्यापक, स्वतंत्रता सेनानी, अमूल्य ग्रन्थो के हिंदी भाषा के अनुवादक, कई तीर्थो पर विशेष पदाधिकारी रहकर अपनी सेवाओं को प्रदान करने और शिक्षा हेतु महावीर पब्लिक विद्यालय-सिरोही व धर्माराधना हेतु अष्टापद तीर्थ-रानी के निर्माता व तीर्थ संघपति आदि अनगिनत उपलब्धियों एवं निस्वार्थ सेवा के अनुमोदनार्थ सम्मान व अलंकरण को अपने नाम कर अपने भक्ति गीतों द्वारा आत्मा से परमात्मा का सीधा साक्षात्कार करवाने वाले, मां सरस्वती के वरदहस्त, कविहृदय, धर्मानुरागी सिरोही निवासी स्व. नैनमलजी विनयचंद्रजी सुराणा ऐसे ही विरले, विलक्षण और वंदनीय व्यक्तित्व के शहंशाह थे। श्री सुराणाजी का जन्म 15 अक्टूबर 1920 को हुआ था। उनका मानना रहा कि भारतवर्ष कलाओं का देश रहा है और मानव के अस्तित्व के साथ ही कला का अस्तित्व भी जुडा है। हमारे धर्म के प्रति हमारी निष्ठता और हमारी परंपरागत रीतिरिवाज ही हमारी सांस्कृतिक पहचान है और मनुष्य व्यक्तिगत रूप से जितना समाज को देता है, सामूहिक रूप से उससे कई गुना वह समाज से प्राप्त करता है।
उनकी जन्मशताब्दी के इस अमूल्य अवसर पर एक ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व के लिए लिखना, जो स्वयं एक कालजयी लेखक रहे, मेरे लिए उनके बारे में यह लिख पाना बेहद मुश्किल है कि वह वें व्यक्ति बेहतरीन थे या उनका व्यक्तित्व बेमिसाल था किंतु सत्य तो यह है कि निसन्देह वें व्यक्ति और व्यक्तित्व की परिभाषा से परे थे। उनके जीवनकाल में सच बात तो यह थी कि उन्हें अपने हर काम में आनन्द आता था। वें अपना हर कार्य पूरी मेहनत से, पूरी आजाद से करते थे लेकिन उनका हर कार्य इस एहसास से प्रेरित रहा कि इससे समाज को लाभ पहुंचेगा। रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि मानव कला के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्त करता है और श्री सुराणाजी के जीवन का दूसरा नाम कला था। उनके द्वारा लिखित हजारों स्तवन हैं, जिनमें से कई गीत तो ऐसे हैं, जिनके बिना प्रभु भक्ति अधूरी सी प्रतीत होती है। फिर चाहे वो "मेरे घर के आगे दादा तेरा मंदिर बन जाये" हो या "एक बार मुखड़ो दिखाओ दिनानाथजी" हो। ऐसे कई गीत हैं जिन्हें आज भी पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी मिलकर गाते हैं। उनके द्वारा लिखा "सिद्धगिरी ना शिखरों बोलें, ॐ नमो अरिहंताणं" तो विशेष रूप से लाखों लोगों के कॉलर ट्यून में बजता हैं। जाने-माने संगीतकार-गीतकार पद्मश्री विभूषक स्व. रविन्द्रजी जैन श्री सुराणाजी के निधन से इतने आहत हुए कि एक सम्मान समारोह में उनकी याद में "नैनों से दूर हुए-नैनमल सुराणा" गीत की रचना कर उन्हें समर्पित की थी। ऐसे अनेकों किस्से हैं, जिन्हें याद करना ना केवल श्रद्धांजलि है बल्कि हमारे लिए प्रेरणा भी है।
अंत मे इतना ही कहना चाहूंगी कि "अंत कभी नही होता और अगर अंत होता भी है तो वहीं से एक नई शुरुआत होती है लेकिन स्व. नैनमलजी तो अनन्त थे।" वें प्रकृति के समान थे, जिन्होंने कठोर प्रयासों से अपने जीवन को सींचकर, आने वाली पीढ़ी के जीवन को महकाया और अब अपनी मृत्यु को महोत्सव बनाते हुए हमें गीतों का खजाना भेंट कर गए। उन्होंने यह जीवनमंत्र सिखाया कि जन्म कब होगा और मृत्यु कब आएगी' ये तो हममें से कोई भी तय नहीं कर सकता लेकिन जीवन कैसे जीना है, ये हम जरूर तय कर सकते हैं। आज वें हमारे बीच नही हैं लेकिन उनकी बातें, उनके गीत हमारे साथ सदैव रहेंगे। उनके जीवन से प्रेरणा लेते हुए हम यह सदैव याद रखेंगे कि मानव जीवन की सार्थकता अपने आप को भुलाकर, अपने अस्तित्व को मिटाकर परहित के लिये आत्म बलिदान की भावना में निहित है।
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