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विश्व सांस्कृतिक दिवस: राजस्थान की महिलाएं घाघरे पर फेटिया क्यों पहनती है?

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 21 मई को विश्व सांस्कृतिक विविधता दिवस घोषित किया हुआ है। ऐसा करने के पीछे उद्देश्य यह है हम सब लोग एक-दूसरे की संस्कृति को जाने और पहचाने। यूनेस्को आज के दिन आपसे अपेक्षा करता है कि आप अन्य संस्कृतियों के रीति-रिवाजों, भोजन, पहनावों, परम्पराओं के बारे में जाने या आपकी इन चीजों से दूसरों को अवगत करायें। आज के विश्व सांस्कृतिक विविधता दिवस पर हम आपको व अन्य संस्कृति के लोगों को राजस्थान के एक ऐसे रिवाज से परिचित करवा रहे है जो धीरे-धीरे लुप्त हो रहा है और हो सकता है आने वाली पीढ़ी इससे अनभिज्ञ हो जायें। वह परम्परा है राजस्थान की महिलाओं द्वारा अपने घाघरे के ऊपर फेटिया बाँधने की परम्परा।

फेटिया क्या होता है? सवा या डेढ फीट चौडा तथा औरत के घाघरे की लम्बाई के बराबर एक सफेद या रंगीन चमकदार व किनारीदार कपडा होता है, जो घाघरे पर लटकाया जाता है।

फेटिया कौन व कब पहनता है? फेटिया राजस्थान की महिलाएं पहनती है। इसे विधवा और सधवा (सुहागिन) दोनों पहनती हैं, हाँ! कंवारी लड़की नहीं पहनती है। फेटिया शोक प्रसंग, विवाह-समारोहों एवं अन्य सामाजिक अवसरों पर महिलाएं पहनती हैं। इसे घाघरे के दाहिनी ओर लटकाया जाता है।

फेटिया क्यों पहनती हैं? आप जानते है कि राजस्थानी महिलाएं अपने रंग-बिरंगे परिधानों पर आड, कातरिया, टीका, कर्णफूल, टीली भलका, तोडा, नथ, नेवरिया, पायल, नोंगरी, पायजेब, लूंग, पोलरी, फीणी, झूमका, वाडला, फूँदा, बाजूबन्ध, बिछिया, नथनी, बोरिया, चम्पाकली, कानबाली, चूडा, मादलिया, मूठ, कांकण, डोरणा, गजरा, जडाऊ, पंशी, झूमर, झेला, कडा, मेमंद, बकसुआ, कांटा, रखडी, कंदौरा, रमझोल, अंगूठी, कण्ठी, वजर टीका, बोरला, वेडला, शीशफूल, रानीहार, लूम, हँसली, हाथपान, हाथफूल, पैरों के कडले इत्यादि गहने पहनकर अपना श्रृंगार करती है। इस रंग-बिरंगी संस्कृति के कारण ही हमारे राज्य को रंगीला राजस्थान कहते है। लेकिन इनमें से कुछ गहने, कुछ कपडे व कुछ रिवाज उसके सुहाग या किसी खास संकेत के प्रतीक होते है उनमें से एक है ‘फेटिया’। जिस तरह शादीशुदा महिलाएं माँग भरती है, पैरों की बड़ी अंगुली में बिछियाँ पहनती है। गौना करवाई हुई लड़की चूडा पहनती है, ठीक वैसे ही फेटिया भी एक खास चीज का संकेतक है।


हम सभी जानते है कि राजस्थान में बहुओं के द्वारा ससुराल पक्ष के अपने से बडो को सम्मान देने व शर्म लाज के कारण उनसे घूंघट करने की परम्परा रही है लेकिन महिलाएं पीहर में या पीहर पक्ष के लोगों से घूंघट नहीं करती है। यह राजस्थान का रिवाज है। ऐसे में हम राजस्थान के गाँवों में सहजता से अनुमान लगा सकते है कि कौन गाँव की बहू है और कौन बेटी? लेकिन शादी-ब्याह, शोक प्रसंगों व विशेष सामाजिक समारोहों में हमारे सगे-सम्बन्धी आमंत्रित रहते है। ऐसे में बड़ी उम्र की लड़कियाँ जिनकी सगाई हो चुकी है, वे अपने ससुराल पक्ष से आये बड़े लोगों से घूंघट रखती है। ससुराल के लोगों को पहचानने के अभाव में ऐसी बेटिया घूंघट निकालकर ही यत्र-तत्र घूमती है, काम करती है। शोक प्रसंग में सभी के एक जैसे शोक के कपड़े होते है। ऊपर से ज्यादातर महिलाओं के घूंघट। इस कारण ऐसे अवसरों पर यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि कौन बहू है कौन बेटी? ऐसे में फेटिये का रिवाज शुरू हुआ।

ऐसे प्रसंगों पर केवल बहुएँ ही फेटिया पहनती है, चाहे वह सधवा हो या विधवा। लेकिन बेटियाँ (या भुआ) फेटिया नहीं पहनती है। इस तरह फेटिया प्रथा स्त्री के बहू होने का परिचायक है।




दिलीप शर्मा, महात्मा गाँधी राजकीय (अंग्रेजी माध्यम) विद्यालय, (कालन्द्री) सिरोही

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